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“पतझर आया”

राजनीति
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“पतझर आया”

कहते हैं संसार में एक ही सत्य है वो है मृत्यु और हर जीव को एक न एक दिन इसे स्वीकार करना ही पड़ता है,  कुछ इसे समझ लेते हैं और कुछ जान कर भी अंजान बनते हैं,  किन्तु डर सबको रहता है|

प्रकृति में परिवर्त्तन एक सामान्य नियम है और यह प्रकृति की सबसे बड़ी खूबी भी है,  एक कोमल सा पत्ता जो अभी – अभी पेड़ पर आता है उसकी सुन्दरता दर्शनीय होती है नजर जब एक बार उसकी ओर पड़ती है तो मानो हटाने का दिल ही नहीं करता,  किन्तु यही पत्ता जब धीमें – धीमें बड़ा होने लगता है तब हमें उसमें नीरसता का बोध होने लगता है और हमारा मोह भी समाप्त होने लगता है और अंततः वही पत्ता अपनी मंजिल को पा सुख गिरता है,  तब वही लोग जो उसे मनमोहक कह रहे होते थे, उसे देख कोसने लगते हैं,  यह उसका दुर्भाग्य ही है की जब उसने संसार को कुछ भी नहीं दिया तब लोग सिर्फ उसकी सुन्दरता के कायल रहते हैं और सालों साल हावाओं के प्रचंड वेगों से खुद को बचाता हुआ जब वो हमारे पर्यावरण के लिए लड़ता हुआ शहीद हो जाता है तब हम उसे सिर्फ कचरा समझ लेते हैं|

जीवन भी तो इसी पत्ते की तरह होता है,  बचपन देख सब खुश होते हैं और खुशियाँ मनाते हैं किन्तु जैसे – जैसे हम बड़े होते जाते हैं हमारी मौलिकता खोती चली जाती है और फिर आता है मानव जीवन का सबसे बड़ा रोग बुढ़ापा जिसमें इंसान बस यही देखता है की आखिर वो कौन सी घड़ी होगी जब वो भी इस संसार से सदा के लिए बिछड़ जाएगा और छोड़ जाएगा अपनी यादें बस|

“””मृत्यु सत्य है किन्तु इस सत्य को यदि अमर बनाया जाए तो जीवन कृतार्थ हो जाए,  हमें सदैव सत्कर्मो पर ध्यान देना चाहिए”””|

“पतझर आया”

“जनम लेने को तत्पर हैं, मगर मरने से हैं डरते

खुदा ने क्या सभी के जीभ में अमृत चटाया है?”

पीपल के पहले पत्ते को, उसने जैसे गिरते देखा,

देख कलेजा, मुँह में आया, मन उसका थोड़ा भर आया,

सोचा दिन कितने बचे हैं, मेरी भी बारी आएगी,

सुख गिरूँगा मैं भी कहीं पर, दूजी हरियाली आएगी,

नीम का पत्ता खुद में बोला, दिन पुरे हो गए है भोला,

अब तो दिल नहीं लगता भाया, देखो – देखो “पतझर आया”

सच जानते हैं, सभी गिरेंगे, प्रश्न हैं कौन? प्रथम बनेंगे,

सभी यहाँ पे साथी हैं, जीवन सब को भाति है,

परिजन का मैं दुःख झेलूँगा, या प्रथम बन जाऊँगा,

एक बार जो टूट गया तो, वापस न जुड़ पाऊँगा,

सच्चाई है जानता हूँ, कभी तो मुझको गिरना है,

फिरभी दिल से पूछ रहा हूँ, जाने क्यों ये “पतझर आया”

पिछली बार जन्म हुआ था, कितना ही उत्साह था मन में,

टूटे पत्तों को जो देखा, भीतर – भीतर आह था मन में,

मैंने देखा, कुछ पत्ते जो, थे मिट्टी में पड़े हुए,

और अनेकों पत्ते जो की, नाले में थे सड़े हुए ,

कुछ को देखा मैंने जलते, कुछ को मैंने देखा गलते,

यह सोच – सोच, ह्रदय है बोला, न जाने क्यों “पतझर आया”

मैंने सोचा पेड़ से पूछूँ, क्या तू शोक मनाएगा,

पेड़ ने बोला, तू जो गिड़ेगा, दूजा कोई आएगा,

मैंने अपने पत्तों को, कई बार ही गिरते देखा है,

पुनः नयी हरियाली को, एक समां बाँधते देखा है,

तू अपने गिरने पर पत्ते, इतना ज्यादा शोक न कर,

गिरना तो एक परंपरा है, इसी लिए तो “पतझर आया”

क्रांतिबीज से साभार

जय हिन्द ….जय भारत

आनंद प्रवीण

भारत मित्र

http://bharatmitramanch.com/post/view/504

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