”हथियार हूँ बना रहा”
मानसिक चित्र को, हूँ शब्द में उतारता,
इन शब्दों को मैं सोच से, और हूँ निखारता,
निखारता हूँ मैं उसे, जो “कोयले”की खान में,
सचित्र रूप में बसा, विचारशील ज्ञान में,
ज्ञानशिलता की मैं, प्रदर्शिनी दिखा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
मैं जलाता हूँ दिया, प्रकाश की ही चाह में,
मैंने देखा है खड़े, कई को अपनी राह में,
मै चेतना जगाता हूँ, नए – नए विचार से,
बचाना चाहता हूँ मैं, समाज को विकार से,
प्रयत्नशील अब भी हूँ, इसी लिए हूँ गा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
जो चाहे मुझको अब कहो, सुनूंगा केवल अपनो की,
मैं बांछ्ना हूँ चाहता, बाते नए वो सपनो की,
वो सपने जिनको देख कर, यहाँ पे मैं बड़ा हुआ,
उसे ही तो निभाने को, पुरुषार्थ से खड़ा हुआ,
क्या सोचता हूँ मैं इसे, सभी को हूँ दिखा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
इंसान के लिए यहाँ, शैतान ही है रह गए,
इंसान जो बने यहाँ, तूफ़ान में है बह गए,
विचित्र रोग है यहाँ, समाज में भरा पड़ा,
इंसानियत के खून से, है लाल हो चुका धड़ा,
इंसान के ही खून को, मैं भी तो हूँ उठा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
आत्मचिंतन मैं करू, क्यों किसी के वास्ते,
अलग – अलग है जा रहें, विचार के ये रास्तें,
मुझे किसी प्रकार का, अह्सान अब न चाहिए,
खोज – खोज थक गया, मुकाम अब न चाहिए,
विश्वास को मैं दिल में अपने, अब भी हूँ जगा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
देखा है उन्हें भी जो, तलवार रखते पास में,
डरा के जितने की इक, उम्मीद और आस में,
है कौन सा वो धार जो, तलवार को गिराएगा,
कटता रहेगा यूँ ही या, कभी इसे मिटाएगा,
कलम की ताकतों से मैं, शक्ति ये घटा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
नवीनता को मैं यहाँ, आधार ना बनाऊँगा,
प्राचीनता को ही मैं अब, संशोधित कर के लाऊँगा,
क्या मिला समाज को, नविन इन विचार से,
अभद्र रूप में यहाँ, हो रहे प्रचार से,
समाज का वो शुद्ध रूप, को ही मैं बता रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
सामान्य सा जो मैं यहाँ, दिख रहा था आज तक,
बुद्धिमता का मैं यहाँ, था खो चुका आकार तक,
सामान्य जानकारियों को, मैं सरल बनाऊँगा,
योग्यता भड़ी हुई है, इसको मैं दिखाऊँगा,
प्रवेश हो चूका मेरा, सभी को मैं जता रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
……
ANAND PRAVIN
मानसिक चित्र को, हूँ शब्द में उतारता,
इन शब्दों को मैं सोच से, और हूँ निखारता,
निखारता हूँ मैं उसे, जो “कोयले”की खान में,
सचित्र रूप में बसा, विचारशील ज्ञान में,
ज्ञानशिलता की मैं, प्रदर्शिनी दिखा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
मैं जलाता हूँ दिया, प्रकाश की ही चाह में,
मैंने देखा है खड़े, कई को अपनी राह में,
मै चेतना जगाता हूँ, नए – नए विचार से,
बचाना चाहता हूँ मैं, समाज को विकार से,
प्रयत्नशील अब भी हूँ, इसी लिए हूँ गा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
जो चाहे मुझको अब कहो, सुनूंगा केवल अपनो की,
मैं बांछ्ना हूँ चाहता, बाते नए वो सपनो की,
वो सपने जिनको देख कर, यहाँ पे मैं बड़ा हुआ,
उसे ही तो निभाने को, पुरुषार्थ से खड़ा हुआ,
क्या सोचता हूँ मैं इसे, सभी को हूँ दिखा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
इंसान के लिए यहाँ, शैतान ही है रह गए,
इंसान जो बने यहाँ, तूफ़ान में है बह गए,
विचित्र रोग है यहाँ, समाज में भरा पड़ा,
इंसानियत के खून से, है लाल हो चुका धड़ा,
इंसान के ही खून को, मैं भी तो हूँ उठा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
आत्मचिंतन मैं करू, क्यों किसी के वास्ते,
अलग – अलग है जा रहें, विचार के ये रास्तें,
मुझे किसी प्रकार का, अह्सान अब न चाहिए,
खोज – खोज थक गया, मुकाम अब न चाहिए,
विश्वास को मैं दिल में अपने, अब भी हूँ जगा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
देखा है उन्हें भी जो, तलवार रखते पास में,
डरा के जितने की इक, उम्मीद और आस में,
है कौन सा वो धार जो, तलवार को गिराएगा,
कटता रहेगा यूँ ही या, कभी इसे मिटाएगा,
कलम की ताकतों से मैं, शक्ति ये घटा रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
नवीनता को मैं यहाँ, आधार ना बनाऊँगा,
प्राचीनता को ही मैं अब, संशोधित कर के लाऊँगा,
क्या मिला समाज को, नविन इन विचार से,
अभद्र रूप में यहाँ, हो रहे प्रचार से,
समाज का वो शुद्ध रूप, को ही मैं बता रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
…
सामान्य सा जो मैं यहाँ, दिख रहा था आज तक,
बुद्धिमता का मैं यहाँ, था खो चुका आकार तक,
सामान्य जानकारियों को, मैं सरल बनाऊँगा,
योग्यता भड़ी हुई है, इसको मैं दिखाऊँगा,
प्रवेश हो चूका मेरा, सभी को मैं जता रहा,
कागजों, कलम को मैं ”हथियार हूँ बना रहा”
……
ANAND PRAVIN
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