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मंच के सभी सदस्यों को मेरा प्रेम भरा प्रणाम
ग्रीष्मकाल जैसे ही बीता, रूह में थोड़ी ठंडक आई,
सोच के वर्षा की बूंदो को, फिजा में एक खुशियाली छायी,
मैंने भी सोचा थोड़ा सा, अबकी खूब नहाऊँगा,
जो मन के भीतर है सुखा, उसको भी मैं भिंगाऊँगा,
मेरी आशा, हुई निराशा, मन एक – एक बूंदो को तरसा,
“देखो आया ऐसा सावन, जिसमें पानी ही ना बरसा” (१)
…
मौसम बदलने से देखो, फर्क बड़ा ही पड़ता है,
एक को पीछे छोड़ यहाँ पे, दूजा आगे बढता है,
परिवर्तन एक सामान्य नियम है, इसका कोई तोड़ नहीं,
बदल गयी जो जीवन शैली, फिर, इसपे कोई जोड़ नहीं,
आगे का जिसमें साज दिखे, वो मौसम देखे हुआ है अरसा,
“देखो आया ऐसा सावन, जिसमें पानी ही ना बरसा” (२)
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सावन के मौसम में देखो, समां अजब सा आता है,
सब दिन चुप बैठा रहता वो, “मोर” भी गीत सुनाता है,
झम – झम – झम जब वर्षा करती, धरती संगीत बजाती है,
गीली होती है मिट्टी, तब अंकुर उसमें आती है,
ऐसे कई रंगीन चित्र को, मन में सोच हुआ ओझरसा,
“देखो आया ऐसा सावन, जिसमें पानी ही ना बरसा” (३)
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वर्षा का प्रवेश द्वार यह, आरंभ नहीं क्यों कर है रहा,
सोच रहा किस बात लिए अब, जला – जल करता क्यूँ न धरा,
धान के पौधे पूछ रहें, क्या? जल हमको मिल पायेगा,
या फिर इस इन्तजार में ही, जीवन सुखा कट जाएगा,
इतनी तो उम्मीद जगा की, आएगी थोड़ी सी वर्षा,
“देखो आया ऐसा सावन, जिसमें पानी ही ना बरसा” (४)
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महत्व बड़ा है सावन का, फिर, भादो को क्यूँ श्र्ये मिले,
जल जिसमें बरसे उसमें ही, जीवन की उम्मीद दिखे,
ऋतुएँ भी अब सही समय पे, देखो धोखा दे जाती हैं,
आना होता है जब उनको, वो पीछे देखो आती हैं,
भगवान भी खेले आँख – मिचोली, इंसान करे क्या बोलो वर्षा,
“देखो आया ऐसा सावन, जिसमें पानी ही ना बरसा” (५)
…
यूपी बिहार के स्थिति पर लिखी गई यह मेरी छोटी सी कविता
Anand Pravin
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