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शून्य वेग से शुरू हुआ था, चलते – चलते गति मिली,
रोष – कोप कुछ नहीं भरा था, जीवन में सदगति मिली,
किंतु जो आगे तू निकला, तुने सच को त्याग दिया,
अपने अंदर की ज्वाला को, व्यर्थ यहाँ बर्बाद किया,
मर्यादा की भाषा से ही, जीवन-पथ में उत्थान मिला,
उचित कर्म करने का देखो, तुझको इक वरदान मिला,
अपने अंदर मंथन कर – कर, सोच ज़रा तू कैसा है,
तू अहंकार को त्याग ज़रा फिर देख धरातल कैसा है(१)
…………..
भटक रहा है ध्यान तेरा, और तू गफलत में जीता है,
नशा नहीं आती जिसमें, वैसी मदिरा क्यों पीता है,
यह सोचो कर्म बड़ा है या, केवल तर्कों पर जीना है,
अपने लोगों से ही लड़, क्या क्रोधभाव रस पीना है,
बड़ी – बड़ी बातें करने से, नहीं कोई बनता है बड़ा,
हाँ पर छोटी बात जो कहते, वो होते हैं नीच ज़रा,
बड़े का न आदर करना, बिलकुल गाली के जैसा है,
तू अहंकार को त्याग ज़रा फिर देख धरातल कैसा है(२)
…………….
उठो चलो उदेश्य पर लौटो, जो तुमने कल ठाना था,
कलम उठाओ फिर वो जिसका, लोहा सबने माना था,
धर्म वही जो लड़ना जाने, किंतु कुछ मर्यादा तक,
छोड़ दिया तुमने लिखना, तोड़ दिया क्यों वादा तक,
ज़रा सा सीखो झुकना क्युकी, अकड़ नहीं शोभा देती,
व्यर्थ अकड़ ही तो जीवन में, मौलिकता को हर लेती,
याद रहे कुछ न बदला, तू जैसा था तू वैसा है,
तू अहंकार को त्याग ज़रा फिर देख धरातल कैसा है(३)
नकारात्मक प्रतिक्रया निषेध ……आग्रह…….सिर्फ मेरी एक रचना कोई विशेष अर्थ ना निकालें
सिर्फ लेखनी को पढ़ें और उपयुक्त आशीर्वाद सह प्यार दें
आनंद प्रवीन
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