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“आज के वर्तमान परिदृश्य में राजनीति अपनी परिभाषा को खोती जा रही है, उसको अब सिर्फ नकारात्मक भाव दे दिया गया है हमारे द्वारा………….किंतु याद रहे एक स्वस्थ समाज बिना स्वस्थ राजनीति के नहीं चल सकता”
शाम से ही बैठकर, मै इस रात को निहारता,
हाँ देखता हूँ मै ये की, अंधकार कैसे बढ़ रहा I
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जो दिख रहे थे साफ़ – साफ़, इस रात में वो खो गए,
इस अन्धकार के तले, बुझे हुए से हो गए I
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चिराग तो जलाया था, पर रौशनी नहीं मिली,
ज़रा सा गम था घट गया, पर वो ख़ुशी नहीं मिली I
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ये चाह रौशनी की मै, अभी तलक तलाशता,
हूँ इन्तजार में ये की, चमक कोई दिखे नयी I
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जब अन्धकार आता है, सवाल क्यों वो लाता है,
जिन्हें जबाब देना है, नजर नहीं वो आता है I
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है अन्धकार पूछता, उजाले में था क्या किया,
मेरा कोई उपाए क्यों, अभी तलक है न किया I
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अब क्यों हो मुझको कोसते, जो चिराग ऐसे पोस्ते,
पूछ लो उन्ही से तुम, क्या अब कोई उपाए है I
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मै अन्धकार ऐसा हूँ, जो बस चूका समाज में,
इस राजनीति रूप में, दिलों में और दिमाग में I
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तुम सोचते हो अब कोई, किरण नयी वो आएगी,
जो अपने आप ही मुझे, इस मार्ग से हटाएगी I
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तो सुन लो मेरी बात भी, मेरे कोई है साथ भी,
तुम्हीं सबो में है छुपा, मेरा ये सूत्रपात भी I
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अन्धकार भी तो ज्ञान है, अगर इसे पहचान लो,
वजूद मेरा हैं बड़ा, ये बात पहले जान लो I
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फिर जान लो ये बात भी, मै उजाले के हूँ साथ भी,
ये देश मेरा भी तो हैं, फिर क्यों करू आघात भी I
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ये जान लो समाज में, दोष है भरे पड़े,
निकाल इनको फ़ेंक दो, अनजान अब हो क्यों खड़े I
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ये राजनीति जिनको तुम, कह रहे हो अन्धकार,
इसी दिए के ब़ल पे तो, है चल रहा समाज भी I
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मुझमें सभी बुरे नहीं, बुराई को निकाल दो,
मैं खुद भी ऐसा चाहता, मुझे जरा संभाल दो I
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फिर देख लो, मै बन दिया, ऐसा प्रकाश लाऊँगा,
मै सूर्य बनकर यहाँ, समाज को नहाऊँगा I
ANAND PRAVIN
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