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“गर वक़्त पड़ा मैं भी निकलूंगा” …………………..

राजनीति
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मेरे साथ जुड़े सभी वरिष्ट और नवयुवक साथियों को मेरा प्रणाम,
निजी कारणों से मंच से दुरी बनी हुई थी इसकारण पर्याप्त समय नहीं दे पाया…………
आज आदरणीय “संतोष” भाई का लेख पढ़ा……..रहा नहीं गया इसलिए जल्दबाजी में उनके विचारों को समर्पित एक मध्यम वर्गीय आवाज़ सुनाने जा रहा हूँ………..
आदरणीय संतोष भाई ने जो बाते कहीं है http://santo1979.jagranjunction.com/2012/04/09/अब-नयी-गंगा-निकलनी-चाहिए
में, वो ना सिर्फ सुनने और समझने की बातें है बल्कि उन बातों का सम्मान करतें हुए उसे अम्ल में भी लाना जरुरी है………….

मैंने अपने इस छोटे से आयु में बहुत लोगों को देखा जो देश के प्रति ना सिर्फ श्रधा रखते है बल्कि उनका दिल हरदम कचोटता भी है अपने देश की इस हालत पर…………किंतु वो ना तो कुछ खुल कर कह पाते है और ना ही कुछ कर पाते है इसका मूल कारण बस यही है की लोग अपनी निजी जीवनों में इतने प्रकार के समस्याओं से घिरें है की उनके लाख चाहने के बावजूद उनकी बात उनके दिल तक ही सिमटी रह जाती है………..
आज हम क्रांति की बात कह रहें है……………मैंने बहुत से क्रांतियों के बाड़े में पढ़ा है …………और मुझे बस एक ही निष्कर्ष समझ में आया की ……………”क्रांतियाँ यूँही नहीं आती” ……………….उसकी शुरुआत इन्ही पागलपन और मुर्खता जैसी दिखने वाली बातों से होती है………..
हम यहाँ लिखते है ………..किसी को ख्याति की तलाश है………….कई शौक के लिए लिखतें है………….कई बस यूँही लिखतें है………..कई अपने विचारों को प्रकट करने के लिए लिखतें है ………कई अपने नैसर्गिक साहित्यिक गुणों के कारण लिखतें है……….किंतु यहाँ मैंने ऐसा पाया है की काफी लोग हैं जो
……..जनचेतना लाने को लिखते है……….उनमें मैंने भी अपने आप को पाया है………..मैं ना मूलरूप से कवी था ……ना कभी बनूंगा……..मुझे तो बस राष्ट्र के लिए कुछ करना है…………बस इसी लिए एक माध्यम वर्ग की आवाज बन कर लिखता हूँ………….
.और उसी की आवाज़ को दर्शाती हुई मेरी यह रचना
आगे बढ़ने के लिए कुछ सोचना ही पड़ता है ……….बड़े लोग तो अपनी ख्याति बनाने में लगे है …………हमें ही देश की ख्याति पर ध्यान देना होगा…………

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“गर वक़्त पड़ा मैं भी निकलूंगा” …………………….

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देश हुए आजाद बहोत दिन, फिरभी मुझको दोष ना दो,
मुझमें हिम्मत है काफी, फिरभी मैं खुद में फंसा हुआ,
देख रहा हूँ आज तमासा, देश को जो है चला रहें,
गद्दारी और मक्कारी कर, नाम हमारा डूबा रहें,
किन्तु मैं लाचार हूँ क्यूंकि, घर की चिंता खाती है,
चाह रहा की युद्ध में कूदू, बच्चो पे आँखें जाती है,
इंकलाब का दौर चला जो, उसमें थोड़ा मैं भी बल दूंगा,
“गर वक़्त पड़ा मैं भी निकलूंगा” ………………………१

…..

आकाश को छूती सोच है मेरी, फिरभी हूँ स्वतंत्र नहीं,
बाधाओं से निकल सकूँ मैं, ऐसा कोई मंत्र नहीं,
बुढ़ें है माँ-बाप मेरे, मुझपर ही सबकी आस टिकी है,
किंतु नव-स्वराज में सच्ची, आजादी की प्यास दिखी है,
इस आजादी में अपनों से, अपनों की खातिर लड़ना है,
और अनेको चिंताओ को, कुचल-कुचल आगे बढना है,
विपरीत समय का दौर चला जो, उसको सीधा मैं ही मोडूंगा

“गर वक़्त पड़ा मैं भी निकलूंगा” ………………………२

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मध्य वर्ग के लोग है हम, पर निम्न हमारी सोच नहीं है,
देश की गाड़ी हमसे ही है, इसमें कोई संकोच नहीं है,
वोट की ताकत को देखो हम, धीमें-धीमें समझ रहे है,
जाती-धर्म के कुचक्रों से, संभल-संभल कर निकल रहें है,
किन्तु थोड़ी दुविधा है, क्यूंकि मेरा एक काम पड़ा है,
जुटा रहा हूँ पैसे क्यूंकि, हर चीज का देखो दाम बढ़ा है,
पर कलमों को चला के थोड़ा, पैगाम यहाँ पर मैं भी दूंगा,

“गर वक़्त पड़ा मैं भी निकलूंगा” ………………………३

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ANAND PRAVIN

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