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मौसम बदला, धुप कड़ी हुई, आ गयी “गेंहू” पर बाली,
गौर से देखा, तो ये पाया, “सुख चुकी वो हरियाली”०१
.
हरियाली आनंद जगाती, विश्वास दिलाती थी मन में,
जन चेतना को और बढ़ाती, सुझाव सिखाती थी, गण में,
भाषा का अब ज्ञान यहाँ पे, जनमानष को नीरस लगता,
कटुता और नग्नता ही अब, बुद्धि का घोतक दीखता,
और इसे समृधि समझ के, लोग बजातें है ताली,
सरल हुएँ है इतने, ये सब, जुबान हो चुकी है काली,
गौर से देखा, तो ये पाया, “सुख चुकी वो हरियाली” ०२
.
बच्चें जो पैदा होते है, कहाँ उन्हें होता है ज्ञान,
ज्ञान दिलाया जाता उनकों, तब मिलती असली पहचान,
मगर यहाँ बच्चों को देखो, है दर्शन कैसे अब मिलते,
अनैतिक ही लोग यहाँ पे, विद्वान बनें है अब फिरतें,
ज्ञान दिलाने वालें “गढ़” भी, हाथ लियें है अब थाली,
थाली में मुद्रा न दो तो, मिलती केवल है गाली,
गौर से देखा, तो ये पाया, “सुख चुकी वो हरियाली”०३
.
देश चलाने वाले अब, विद्वान कहाँ मिल पायेंगे,
मिल जाएँ विद्वान् मगर,सुविचार कहाँ से लाएँगे,
ज्ञान किताबी मिल सकता है शिक्षा के मतवालों को,
सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है , निर्मल तन-मन वालों को,
वो आँखें जो देख ले जन को, और व्यथा उनकी समझे.
पीड़ा को अनुभूत करे जो, करुण कथा उनकी समझे.
श्वेत रक्त में और जगा दें, जो प्रचंड पुरुषार्थ की लाली,
गौर से देखा, तो ये पाया, “सुख चुकी वो हरियाली”०४
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हरियाली के “हरे रंग” को, न जाने क्यों शाप लगा,
किसने हर ली शक्ति उसकी, दिया है उसमें दाग लगा,
दाग भी ऐसा जिसमें पूरा, संसार रंगा कर बैठा है,
इसे ही सच्चा जान रहा, और “हरे” को कहता झूठा है,
हरा रंग भी अपनी, इस, दशा को देख रहा खाली,
सोच रहा न जाने कब, लौटेगी दिन करूणा वाली,
गौर से देखा, तो ये पाया, “सुख चुकी वो हरियाली”०५
Anand Pravin
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